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समि॑द्धश्चि॒त्समि॑ध्यसे दे॒वेभ्यो॑ हव्यवाहन । आ॒दि॒त्यै रु॒द्रैर्वसु॑भिर्न॒ आ ग॑हि मृळी॒काय॑ न॒ आ ग॑हि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

samiddhaś cit sam idhyase devebhyo havyavāhana | ādityai rudrair vasubhir na ā gahi mṛḻīkāya na ā gahi ||

पद पाठ

सम्ऽइ॑द्धः । चि॒त् । सम् । इ॒ध्य॒से॒ । दे॒वेभ्यः॑ । ह॒व्य॒ऽवा॒ह॒न॒ । आ॒दि॒त्यैः । रु॒द्रैः । वसु॑ऽभिः । नः॒ । आ । ग॒हि॒ । मृ॒ळी॒काय॑ । नः॒ । आ । ग॒हि॒ ॥ १०.१५०.१

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:150» मन्त्र:1 | अष्टक:8» अध्याय:8» वर्ग:8» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:1


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ब्रह्ममुनि

इस सूक्त में जो ब्रह्मचारी काम क्रोध लोभ से रहित विद्वान् उपासक होते हैं, उनके हृदय में परमात्मा साक्षात् होता है एवं जो विद्वान् अग्नि का सम्यक् उपयोग करते हैं, उनके घर में, कारखाने में अग्नि लाभ देती है आदि विषय हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (देवेभ्यः) स्तुति करनेवाले विद्वानों की तृप्ति के लिए या वायु आदि देवों की शुद्धि के लिए (हव्यवाहन) ग्राह्य वस्तू के प्राप्त करनेवाले परमात्मन् ! या होमीय द्रव्य के प्रेरक अग्नि ! (समिद्धः-चित्) स्वयं प्रकाशित हुआ या दीप्त हुआ (सम् इध्यसे) उपासक विद्वानों के अन्तःकरणों में सम्यक् प्रकाशित हो रहा है या वेदी में सम्यक् प्रकाशित हो रहा है (आदित्यैः) अड़तालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य व्रतवालों से या सूर्य की किरणों द्वारा (रुद्रैः) चवालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य सेवन करनेवालों के द्वारा या विद्युत्तरङ्गों के द्वारा (वसुभिः) चौबीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्यवालों के द्वारा या पृथिवीवासी काष्ठ इन्धन आदि के द्वारा (नः-आ गहि) हमें भलीभाँति प्राप्त हो (नः-मृळीकाय-आ गहि) हमारे सुख के लिए भलीभाँति प्राप्त हो ॥१॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा स्तुति करनेवाले विद्वानों की तृप्ति के लिए उनके अन्तःकरणों में प्रकाशित होता है, वे स्तुति करनेवाले विद्वान् अड़तालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य धारण करने-वाले, चवालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य करनेवाले, चौबीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य करनेवाले हैं, ऐसा परमात्मा मनुष्यों की स्तुति में लाया जाय, वह उनके सुख के लिए प्राप्त हो तथा अग्नि वायु आदि की शुद्धि के लिए प्रदीप्त किया जाता है जो सूर्यकिरणों से, विद्युत् की तरङ्गों से और काष्ठ आदि इन्धन से दीप्त किया जाता है, वह प्रत्येक मनुष्य के घर में होमने तथा सुख के लिए सिद्ध किया जाता रहे ॥१॥
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ब्रह्ममुनि

अत्र सूक्ते ये ब्रह्मचारिणः कामक्रोधलोभवर्जिता सन्ति खलूपासकास्तेषां हृदये परमात्मा साक्षात् भवति, एवं ये विद्वांसोऽग्निं सम्यग्ज्वालयन्ति तेषां गृहे कारगृहे वाऽग्निर्लाभदो भवति।

पदार्थान्वयभाषाः - (देवेभ्यः-हव्यवाहन) हे विद्वद्भ्यः स्तोतृभ्यस्तेषां तृप्तये वायुप्रभृतिभ्य-स्तच्छोधनार्थं हव्यस्य ग्राह्यस्य प्रापक परमात्मन् ! यद्वा होमीयद्रव्यस्य प्रेरकाग्ने ! (समिद्धः-चित् सम् इध्यसे) स्वयं प्रकाशितः सन् देवैरुपासकविद्वद्भिस्तदन्तःकरणे सम्यक् दीप्यसे (आदित्यैः) चरिताष्टाचत्वारिंशद्वर्षब्रह्मचर्यैः, यद्वा सूर्यकिरणैः “आदित्याः किरणाः” [अथर्व० १४।१।२ भाष्यभूमि० दयानन्दः] (रुद्रैः) अनुष्ठितचतुश्चत्वारिंशद्वर्षब्रह्मचर्यैः, वैद्युत्तरङ्गैर्वा (वसुभिः) कृतचतुर्विंशतिवर्षब्रह्मचर्यैः, पृथिवीवासिकाष्ठैरिन्धनैर्वा सह (नः-आ गहि) अस्मान् समन्तात् प्राप्नुहि (नः-मृळीकाय-आ गहि) अस्माकं सुखाय समन्तात् प्राप्नुहि ॥१॥